What is Parabrahma according to Indian culture, what is its complete essence?

सनातन धर्म, जिसे हिन्दू धर्म भी कहा जाता है, भारतीय सभ्यता और आध्यात्मिकता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस धर्म का मूल तत्त्व परब्रह्म या अद्वैत ब्रह्म के प्रति आदर और उसके स्वरूप के प्रति ज्ञान में निहित है। परब्रह्म के अद्वैत स्वरूप का संपूर्ण वर्णन निम्नलिखित रूपों में किया जा सकता है:




1. परब्रह्म का परिचय:


परब्रह्म, जिसे अद्वैत ब्रह्म भी कहा जाता है, सनातन धर्म में एक अद्वितीय, अविकारी, अनंत, और अचिंत्य ब्रह्मज्ञान का प्रतीक है। यह ब्रह्म अनंत और अनन्तरिक्ष में स्थित है, सभी काल में मौजूद है, और सभी जीवों के आत्मा में विद्यमान है। यह जगत के सृजनात्मक और नाशक शक्तियों का स्रोत है, और सबकी मूल उपादान तत्त्व है।


परब्रह्म की अनन्त गुणधर्म, उसके अद्वितीयता और अनन्त स्वरूप को समझाते हैं। वह सत्य, ज्ञान, आनंद, शांति, करुणा, दया, और निर्मलता के स्रोत है। वह सम्पूर्ण जगत को परिपूर्ण करने वाला है और सभी जीवों के आत्मा को आत्मज्ञान और मोक्ष की दिशा में प्रेरित करने वाला है।


परब्रह्म के स्वरूप का वर्णन करते समय, अद्वैत वेदांत शास्त्र में उसे "सत्-चित्-आनंद" के त्रितय लक्षणों से व्यक्त किया जाता है।

  • सत् (सत्य): परब्रह्म सत्य है, अर्थात् यह असली और शाश्वत है। यह किसी प्रकार के परिवर्तन या विकार से अभिभूत नहीं होता, और न किसी भ्रम या अज्ञान से प्रभावित होता है। यह सत्य अनंत, अचिंत्य, और निर्गुण होने के कारण शब्दों में कभी भी पूरी तरह से व्यक्त नहीं किया जा सकता है।

  • चित् (ज्ञान): परब्रह्म ज्ञान से परिपूर्ण है। यह अनंत ज्ञान और आत्मज्ञान का स्रोत है। इसका मतलब है कि परब्रह्म सभी जीवों की आत्मा में विद्यमान है और उसके माध्यम से हम सच्चे ज्ञान की प्राप्ति कर सकते हैं।

  • आनंद (आनंदमय): परब्रह्म आनंद से परिपूर्ण है, और यह सच्चे आनंद का स्रोत है। यह आनंद भौतिक और मानसिक आनंद से भिन्न है, बल्कि यह आत्मा के अनुभव का परिणाम होता है, जिसमें कोई विकल्प और द्वंद्व नहीं होता।

परब्रह्म का परिचय देते समय यह महत्वपूर्ण है कि हम समझें कि यह जगत से अलग होने के साथ-साथ उसका आदिकारण और उसके सम्पूर्ण अवबोधन का केंद्रित स्रोत है। यह सम्पूर्ण जीवन के माध्यम से हमें आत्म-ज्ञान, मोक्ष, और आनंद की प्राप्ति की दिशा में प्रेरित करता है।


परब्रह्म, जिसे ब्रह्म, आत्मा, आदि भी कहा जाता है, सनातन धर्म में सबसे महत्वपूर्ण और उच्च तत्त्व है। यह सबका आदिकारण और उद्भव है, और सभी जीवों की आत्मा में विद्यमान है। यह अविकारी, अनंत, अचिंत्य, निर्गुण, अनन्त और अनादि है। परब्रह्म सर्वव्यापी है, सभी काल, देश, और परिस्थितियों में मौजूद है, और सभी जीवों के अंतरात्मा में निवास करता है।


2. परब्रह्म की अद्वैत वेदांत में महत्वपूर्णता:


परब्रह्म की अद्वैत वेदांत में महत्वपूर्णता व्यक्त करती है कि सब कुछ एक ही अद्वितीय ब्रह्म के रूप में मौजूद है, और सब धार्मिक, आध्यात्मिक, और जीवन के पहलु इसी अद्वितीयता के आधार पर आगे बढ़ते हैं। अद्वैत वेदांत का मूल उद्देश्य यह है कि व्यक्ति अपने आत्मा के माध्यम से परब्रह्म की अद्वितीयता का अनुभव करे और उसे जीवन में अपनाए।


अद्वैत वेदांत के अनुसार, जगत्, आत्मा और परब्रह्म में कोई भिन्नता नहीं है। ये सभी एक ही ब्रह्म के विभिन्न पहलु हैं, जो अपने स्वरूप में एक हैं। इसका मतलब है कि सच्चिदानंद (सत्य, ज्ञान, आनंद) के साथ सभी जीव और जगत् मिलकर एक हैं। यह अद्वितीयता का तत्व है जिसके आधार पर यह कहा जाता है कि सब कुछ ब्रह्म में ही विद्यमान है और इससे भिन्न नहीं है। अद्वैत वेदांत के शिष्य और आचार्यों ने इस महत्वपूर्ण तत्त्व को व्यक्त करने के लिए कई उपायों का प्रस्तावना किया है:


  • नेति-नेति विवेक (श्रवण, मनन, निदिध्यासन): यह विचारना प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति को आत्मा के स्वरूप की जानकारी प्राप्त होती है। इसमें व्यक्ति को यह सिखाया जाता है कि वास्तविकता में क्या है और क्या नहीं है, और उसे अपने मनन और ध्यान के माध्यम से आत्म-अनुभव का परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है।

  • माया के विवरण: अद्वैत वेदांत के अनुसार, जगत् माया से व्यवहारिक रूप में विभाजित है, और यह वास्तविकता में अस्तित्व नहीं रखता। माया की व्याख्या से व्यक्ति को यह समझने में मदद मिलती है कि सब कुछ एक ही ब्रह्म के विभिन्न रूपों का विकास है, और इसे समझकर वह सबको समान दृष्टि से देख सकता है।

  • अनुभव के माध्यम से परब्रह्म का अनुभव: अद्वैत वेदांत के अनुसार, परब्रह्म का सच्चा अनुभव सिर्फ शब्दों में नहीं किया जा सकता, बल्कि यह व्यक्ति के आत्म-अनुभव के माध्यम से होता है। यह अनुभव जगत् के प्रति विशेष भावनाओं और आध्यात्मिक विकास के साथ आता है और व्यक्ति को सच्चे आत्मा का अनुभव कराता है।

अद्वैत वेदांत में परब्रह्म की अद्वितीयता की महत्वपूर्णता यह है कि व्यक्ति को यह समझने में मदद मिलती है कि सब कुछ एक ही अद्वितीय ब्रह्म के अद्वितीय रूप का विकास है, और सभी विचार, भावनाएँ, और कर्म उसके विभिन्न अवस्थाओं में होते हैं।


परब्रह्म का अद्वैत वेदांत में महत्वपूर्ण स्थान है, जिसमें उसे ब्रह्मानंद (आनंदमय ब्रह्म) के रूप में व्यक्त किया जाता है। अद्वैत वेदांत के अनुसार, जगत्, आत्मा और परब्रह्म में कोई भिन्नता नहीं है, बल्कि ये सभी एक ही ब्रह्म के विभिन्न अवस्थाएँ हैं। इसका अर्थ है कि सच्चिदानंद (सत, चित्, आनंद) के साथ सभी जीव और जगत् मिलकर एक हैं।


3. परब्रह्म की अनंत गुणधर्म:


परब्रह्म की अनंत गुणधर्म उसके अद्वितीय और अनन्त स्वरूप की महत्वपूर्ण विशेषताओं का परिचय देती है। ये गुणधर्म उसके स्वरूप की गहराईयों को समझाने में मदद करते हैं और हमें उसके विशेषताओं की ओर मार्गदर्शन करते हैं।

  • सत्य (Truth): परब्रह्म अपने स्वरूप में पूर्णता और सत्य का प्रतीक है। वह सबका सत्य है और उसके अद्वितीयता में कोई भी असत्य नहीं हो सकता।

  • ज्ञान (Knowledge): परब्रह्म सर्वज्ञ और सर्वविद्या का स्रोत है। उसका अद्वितीय ज्ञान सभी जीवों की अंतरात्मा में विद्यमान है, और उसके बिना कोई भी ज्ञान अधूरा है।

  • आनंद (Bliss): परब्रह्म सच्चिदानंद स्वरूप है, जिसका अर्थ है कि उसका स्वरूप आनंदमय है। उसके अद्वितीय आनंद का अनुभव सिर्फ आत्मा के माध्यम से हो सकता है और यह जीवन का सबसे उच्च आदर्श है।

  • शांति (Peace): परब्रह्म की अनंत शांति है जो सभी चिंता, दुख, और अगित को नष्ट कर देती है। उसके प्रति आत्मा की उपासना और समर्पण से हम आत्मिक शांति का अनुभव करते हैं।

  • करुणा (Compassion): परब्रह्म सबका पिता और माता है, और उसकी अनंत करुणा हमें अन्य जीवों के प्रति सहानुभूति और दया की भावना दिलाती है।

  • दया (Mercy): परब्रह्म की अद्वितीय दया सभी जीवों के प्रति होती है और उसके बिना कोई भी दयालुता अधूरी है। हमें भी अन्यों के प्रति दयालु और मददगार बनने का प्रयास करना चाहिए।

  • निर्मलता (Purity): परब्रह्म निर्मलता का प्रतीक है और उसकी अनंत निर्मलता हमें अपने मन, वचन, और कर्मों की पवित्रता की ओर प्रेरित करती है।

ये गुणधर्म परब्रह्म के स्वरूप की अनंतता और पूर्णता का प्रतिनिधित्व करते हैं और हमें उसके प्रति आदर और समर्पण की महत्वपूर्णता समझाते हैं। परब्रह्म के गुणधर्म अनंत और अद्वितीय हैं। यह सत्य, ज्ञान, आनंद, शांति, करुणा, दया, और निर्मलता के स्रोत है। वह निष्कलंक, अनिर्वचनीय, और अपूर्व है।


4. परब्रह्म का साकार और निराकार रूप:


परब्रह्म का साकार और निराकार रूप सनातन धर्म में महत्वपूर्ण तत्त्व है, जिससे हम उसके विभिन्न पहलुओं को समझ सकते हैं। यह दोनों रूप भगवान के व्यक्तिगत अनुभव और आध्यात्मिक उन्नति के माध्यम से प्राप्त होते हैं।

  • साकार रूप (Saguna Brahman): साकार रूप में परब्रह्म को आकारवाला, सगुण (गुणों से युक्त), और व्यक्तिगत स्वरूप में देखा जाता है। यह भगवान के विभिन्न देवी-देवताओं के रूप में प्रतिष्ठित होता है, जैसे कि विष्णु, शिव, दुर्गा, लक्ष्मी, गणेश, आदि। इन देवी-देवताओं को उपासना और भक्ति के लिए प्रतिष्ठित किया जाता है, और उन्हें मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं की प्रतिनिधित्व के रूप में देखा जाता है साकार रूप की उपासना से व्यक्ति भक्ति और श्रद्धा के माध्यम से परमात्मा के प्रति अपनी आस्था को व्यक्त करता है और उसके साथ प्रत्यक्ष आनंद का अनुभव करता है।

  • निराकार रूप (Nirguna Brahman): निराकार रूप में परब्रह्म को आकारहीन, निर्गुण (गुणों से रहित), और अव्यक्त स्वरूप में देखा जाता है। यह आत्मा के स्वरूप के प्रति अध्यात्मिक ज्ञान और समाधि के माध्यम से प्राप्त होता है। इस रूप में परमात्मा को निरंतर उपासना, ध्यान, और आत्म-अनुभव के माध्यम से पहचाना जाता है। निराकार रूप की उपासना से व्यक्ति आत्मा में परमात्मा की अद्वितीयता को समझता है और उसके साथ आत्म-अनुभव का अवसर प्राप्त करता है। यह दोनों रूप भगवान के प्रति व्यक्ति की आस्था, भक्ति, और आध्यात्मिक साधना के माध्यम से प्राप्त होते हैं और व्यक्ति को आत्मा के अद्वितीयता का अनुभव कराते हैं।

परब्रह्म का एक साकार और निराकार रूप है। साकार रूप में उसे सगुण ब्रह्म कहा जाता है, जिसमें उसके विभिन्न गुण और आवतारों का वर्णन होता है, जबकि निराकार रूप में वह अद्वैत और निर्गुण ब्रह्म कहलाता है।


5. परब्रह्म का साक्षात्कार और उपासना:


परब्रह्म का साक्षात्कार और उपासना सनातन धर्म में महत्वपूर्ण आध्यात्मिक साधनाओं में से दो हैं, जिनका उद्देश्य आत्मा के अद्वितीयता का अनुभव करना है। ये दोनों प्रक्रियाएँ व्यक्ति को परमात्मा के प्रति अपनी आस्था और समर्पण का मार्ग दिखाती हैं और उसके आध्यात्मिक उन्नति में मदद करती हैं।

  • साक्षात्कार (Realization): साक्षात्कार का अर्थ होता है परमात्मा के साक्षात अनुभव का प्राप्ति करना। यह आत्मा के अद्वितीयता का अनुभव होता है, जिसके माध्यम से व्यक्ति परमात्मा के सत्य और अनंत स्वरूप को सीधे अनुभव करता है। साक्षात्कार आध्यात्मिक जीवन का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य माना जाता है, जिसमें व्यक्ति अपने मन, वचन, और कर्मों के माध्यम से परमात्मा के प्रति अपनी सच्ची भक्ति और प्रेम को व्यक्त करता है। साक्षात्कार के लिए व्यक्ति को आत्मा के स्वरूप की पहचान करनी चाहिए, जिसके लिए विचार, ध्यान, और समाधि की प्रक्रियाएँ उपयोगी होती हैं। यह साधनाएँ व्यक्ति को आत्मा के अद्वितीयता का अनुभव कराती हैं और उसे परमात्मा के साक्षात्कार की दिशा में प्रेरित करती हैं।


  • उपासना (Devotion): उपासना का अर्थ होता है भगवान के प्रति भक्ति और समर्पण की भावना के साथ पूजन और अराधना करना। यह आत्मा की आदर्श और सात्विक भावनाओं की व्यक्ति द्वारा परमात्मा की प्रतिष्ठा और सेवा का मार्ग है। उपासना के लिए व्यक्ति भगवान के आदर्श और भक्ति का पालन करते हैं, और उनके प्रति आस्था और समर्पण की भावना के साथ पूजा, प्रार्थना, मंत्र-जाप, सेवा, और साधना करते हैं। यह साधनाएँ व्यक्ति को भगवान के प्रति आदर्श भावना का अनुभव कराती हैं और उसे भक्ति के मार्ग में प्रेरित करती हैं। इन दोनों प्रक्रियाओं के माध्यम से व्यक्ति परमात्मा के प्रति अपनी भक्ति, प्रेम, और समर्पण को व्यक्त करता है और आत्मा के अद्वितीयता का अनुभव करता है।

सनातन धर्म में परब्रह्म का साक्षात्कार और उपासना महत्वपूर्ण है। योग, ध्यान, भक्ति, और ज्ञान के माध्यम से जीव उसके प्रति अपनी श्रद्धा और भक्ति को व्यक्त करते हैं। यह उनके आध्यात्मिक सफर का हिस्सा होता है जिसमें वे परम आनंद, शांति, और मोक्ष प्राप्त करते हैं।


6. परब्रह्म के आदर्श:


परब्रह्म के आदर्श मानव जीवन में मार्गदर्शन करने वाले नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का संक्षिप्त रूप होते हैं। ये आदर्श व्यक्ति को उच्चतम आदर्शों और मानवता के लक्ष्यों की ओर प्रेरित करते हैं और उसे एक उद्देश्यपरक जीवन जीने की मार्गदर्शन करते हैं। विभिन्न धार्मिक और आध्यात्मिक परंपराओं में, परब्रह्म के आदर्श विभिन्न रूपों में प्रस्तुत होते हैं। यहां कुछ मुख्य आदर्श हैं जो भिन्न संदर्भों में परिभाषित किए गए हैं:


  • सत्य (Truthfulness): सत्य के आदर्श के अनुसार, व्यक्ति को सत्य बोलने, सत्य का पालन करने, और अपने विचारों और क्रियाओं में सत्यता बनाए रखने का मार्ग प्राप्त करना चाहिए।

  • अहिंसा (Non-violence): अहिंसा के आदर्श के अनुसार, व्यक्ति को सभी प्राणियों के प्रति दया और सहानुभूति की भावना रखनी चाहिए और उसे किसी भी प्रकार की हिंसा से दूर रहने का प्रयास करना चाहिए।

  • आत्म-समर्पण (Self-surrender): परब्रह्म के आदर्श के अनुसार, व्यक्ति को अपनी स्वार्थपरता को छोड़कर भगवान के इच्छानुसार जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए और अपनी सम्पूर्ण समर्पण और आत्म-नियंत्रण के साथ आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए।

  • सेवा (Service): सेवा के आदर्श के अनुसार, व्यक्ति को समाज में सेवा करने का प्रयास करना चाहिए, विशेषकर उन्हें जिनकी सहायता और समर्थन की आवश्यकता है।

  • त्याग (Renunciation): त्याग के आदर्श के अनुसार, व्यक्ति को आत्मा की प्राथमिकता देते हुए सामाजिक और आध्यात्मिक बंधनों को त्यागने का प्रयास करना चाहिए और उसे आत्मा के महत्वपूर्ण मूल्यों की ओर दिशा में आगे बढ़ने का प्रेरित करना चाहिए।

  • उपकार (Kindness): उपकार के आदर्श के अनुसार, व्यक्ति को दूसरों की मदद करने का आदर्श अपनाना चाहिए, विशेषकर उन्हें जिनकी स्थिति कमजोर होती है।

  • वैराग्य (Detachment): वैराग्य के आदर्श के अनुसार, व्यक्ति को आत्म-मानसिकता में और मान-संबंधितता से परे जीने का मार्ग अपनाना चाहिए, और उसे सामग्री और विषयों के प्रति आत्मा-निर्भर और विमुक्त रहने का प्रयास करना चाहिए।

ये आदर्श व्यक्ति को नीति, नैतिकता, और आध्यात्मिकता की दिशा में मार्गदर्शन करते हैं और उसे एक सत्य, न्याय, और परमात्मा के प्रति समर्पित जीवन जीने की प्रेरित करते हैं। परब्रह्म के स्वरूप के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण ने 'भगवद गीता' में उपदेश दिया कि मनुष्य को आत्मा के माध्यम से परब्रह्म के प्रति अपनी भक्ति को व्यक्त करना चाहिए।


7. परब्रह्म का उद्देश्य:


परब्रह्म का उद्देश्य भगवान के स्वरूप और मानव जीवन के लक्ष्य को समझाने में मदद करते हैं। इसका मूल उद्देश्य मानव जीवन को आत्मा के अद्वितीयता और भगवान के साक्षात्कार की दिशा में प्रेरित करना है। यहां कुछ मुख्य उद्देश्य दिए गए हैं:


  • आत्मा के स्वरूप की पहचान: परब्रह्म का प्रमुख उद्देश्य आत्मा के स्वरूप और महत्व की पहचान करवाना है। आत्मा को पहचानकर व्यक्ति अपने असली स्वरूप को समझता है और मानव जीवन में आत्मा के महत्वपूर्ण भूमिका को समझता है।

  • आत्मा के साक्षात्कार: परब्रह्म का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य आत्मा के साक्षात्कार को प्रोत्साहित करना है। यह आत्मा के अद्वितीयता और अनंत स्वरूप की अनुभूति है जिससे व्यक्ति भगवान के साक्षात्कार की दिशा में प्राप्त होता है।

  • धर्मपरायणता: परब्रह्म का उद्देश्य धर्मपरायणता और नैतिक मूल्यों की प्रोत्साहना करना है। धर्मपरायण जीवन जीने से व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करता है और समाज में सही दिशा में योगदान करता है।

  • सामाजिक समृद्धि: परब्रह्म का उद्देश्य सामाजिक समृद्धि और समाज में सामाजिक न्याय की स्थापना करना है। भगवान के आदर्शों के अनुसार, व्यक्ति को अपने समाज के सदस्यों के प्रति सहानुभूति और दया की भावना रखनी चाहिए।

  • आध्यात्मिक समृद्धि: परब्रह्म का उद्देश्य आध्यात्मिक समृद्धि और मानव जीवन के आध्यात्मिक उन्नति की प्रोत्साहना करना है। व्यक्ति को अपने आध्यात्मिक विकास के लिए प्रेरित किया जाता है जिससे वह परमात्मा के साक्षात्कार की दिशा में आगे बढ़ सके।

  • समर्पण और प्रेम: परब्रह्म का उद्देश्य व्यक्ति को अपने जीवन को परमात्मा के सेवन और प्रेम में समर्पित करने के लिए प्रोत्साहित करना है। भगवान के प्रति आदर और प्रेम के साथ जीवन जीने से व्यक्ति का आत्मा का साक्षात्कार होता है और उसका जीवन उद्देश्यपरक बनता है।

परब्रह्म के उद्देश्य का मुख्य लक्ष्य मानव जीवन को आत्मा के महत्वपूर्णता और भगवान के साक्षात्कार की दिशा में मार्गदर्शन करना है, जिससे व्यक्ति आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त कर सके और उसका जीवन प्राणिक मूल्यों और उद्देश्यों की दिशा में दिशा में विकसित हो सके। परब्रह्म का उद्देश्य मनुष्य को आत्मा के माध्यम से उसके आदि और अनंत स्वरूप का ज्ञान प्रदान करना है। यह उसके आत्मा की मुक्ति, आनंद, और सच्ची शांति में मदद करता है। सनातन धर्म में परब्रह्म और उसके स्वरूप का यह संक्षिप्त वर्णन है, जो धार्मिकता, आध्यात्मिकता, और जीवन के महत्वपूर्ण मुद्दों को समझने में मदद करता है। इस संदर्भ में, यह महत्वपूर्ण है कि व्यक्ति अपने आत्मा के माध्यम से परब्रह्म की अद्वितीयता और सर्वव्यापितता को समझें और अपने जीवन को उसके दिशानिर्देशानुसार जीने का प्रयास करें।


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